Monday, July 28, 2025
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कौन था वो निजाम, जो बेशकीमती हीरा पेपरवेट की तरह करता था इस्‍तेमाल, अब कहां है


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The Jacob Diamond: हैदराबाद के छठे निजाम महबूब अली खान जैकब डायमंड को दुर्भाग्यशाली मानते थे. लिहाजा उन्होंने इस हीरे को जूते में डालकर छिपा दिया था. बाद में अगले निजाम मीर उस्मान अली खान ने इसका इस्तेमाल पेपरव…और पढ़ें

हैदराबाद के आखिरी निजाम मीर उस्मान अली खान ने जैकब डायमंड को पेपरवेट की तरह इस्तेमाल किया.

हाइलाइट्स

  • छठे निजाम महबूब अली खान ने जैकब हीरे को जूते में छिपाकर रखा था
  • मीर उस्मान अली खान ने जैकब हीरे को पेपरवेट की तरह इस्तेमाल किया
  • जैकब हीरा अब मुंबई में भारतीय रिजर्व बैंक की तिजोरियों में सुरक्षित है
The Jacob Diamond: हैदराबाद पर राज करने वाले सभी निजामों में छठे निजाम मीर महबूब अली खान सबसे ज्यादा खुशमिजाज और मौज-मस्ती पसंद करने वाले बादशाह थे. उन्हें पश्चिमी चीजों का बहुत शौक था, चाहे वो कपड़े हों, कार हो, तौर-तरीके हों या आदतें. 1866 में जन्मे महबूब अली अपने पिता अफजल-उद-दौला की मृत्यु के बाद तीन साल की उम्र में गद्दी पर बैठे और 1911 तक शासन किया. महबूब अली ने हैदराबाद में एक अत्यंत भव्य दरबार लगाया, जिसकी नकल भारत के कई देशी शासकों ने करने की कोशिश की. उन्हें महंगे आभूषणों और कीमती हीरों का शौक था. उनके बहुमूल्य संग्रह में फ्रांस की मैरी एंटोनेट के प्रसिद्ध हार सहित कई शानदार आभूषण शामिल थे. हालांकि उनके संग्रह में सबसे प्रसिद्ध जैकब हीरा था. जिसे दुनिया का पांचवां सबसे बड़ा हीरा कहा जाता है.

जैकब का आकार प्रसिद्ध कोहिनूर से दोगुना है. कोहिनूर हीरा वर्तमान में ब्रिटिश राजघराने के पास है और राजसी ताज में जड़ा हुआ है. लेकिन जैकब हीरा अभी भी भारत में मौजूद है. यह हीरा हैदराबाद के निजाम का था, जो कभी दुनिया के सबसे अमीर आदमी भी थे. लेकिन इस हीरे को और भी दिलचस्प बनाने वाली बात यह है कि यह कैसे मिला. यह एक जूते में मिला था. जिस व्यक्ति के नाम पर इसका नाम रखा गया, वह एक बेहद रहस्यमयी मिस्टर जैकब थे. यह सब कैसे हुआ? आइए जानें…

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जैकब हीरे की दिलचस्प कहानी
पीपलट्री के मुताबिक जैकब हीरे की कहानी तीन बेहद दिलचस्प किरदारों के बीच घूमती है. हैदराबाद के छठे निजाम महबूब अली खान, उनके अर्मेनियाई सेवक अल्बर्ट आबिद और अलेक्जेंडर मैल्कम जैकब नाम का एक रहस्यमयी जौहरी. इन किरदारों की दिलचस्प कहानी ही काफी नहीं थी, बल्कि 1890 के दशक में इस हीरे ने एक बड़ा घोटाला भी खड़ा कर दिया था.

निजाम मीर उस्मान अली खान और जैकब डायमंड.
निजाम को था हीरे इकट्ठा करने का शौक
हैदराबाद के छठे निजाम मीर महबूब अली खान 1869 में सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली राज्य की गद्दी पर बैठे. एक दयालु और करुणामयी व्यक्ति होने के कारण वह हैदराबाद में ‘प्रिय’ राजा के रूप में प्रसिद्ध थे. उनके बारे में ऐसी कहानियां प्रचलित हैं कि वे शहर में भेष बदलकर घूमते थे और जरूरतमंद लोगों की मदद करते थे. कहा जाता है कि वह इतने उदार थे कि उनके पास मदद के लिए आने वाला कोई भी व्यक्ति खाली हाथ नहीं लौटता था. महबूब अली खान जहां दूसरों के प्रति उदार थे, वहीं उन्हें जीवन की अच्छी चीजों से भी प्यार था. आखिरकार, वह अपनी दौलत को नुकसान पहुंचाए बिना दोनों काम तो कर ही सकते थे. निजाम को हीरे इकट्ठा करने का भी खासा शौक था.

अर्मेनियाई आबिद था निजाम का खास
महबूब अली खान का दाहिना हाथ उनका नौकर अल्बर्ट आबिद नाम का एक अर्मेनियाई व्यक्ति था. प्रसिद्ध हैदराबादी इतिहासकार डी.एफ. कराका लिखते हैं, “जब भी महबूब अली पाशा बटन खोलते या कपड़े बदलते, आबिद वहां मौजूद होते. उन्हें वहां होना ही था. महामहिम उनके बिना काम नहीं चला सकते थे.’ निजाम के नौकर के रूप में आबिद के कर्तव्यों में निजाम के कपड़े, जूते, घड़ियां, आभूषण और अन्य सामानों की देखभाल करना शामिल था. कहा जाता है कि निजाम के कपड़े 12 नौकर तैयार करते थे और आबिद उनकी देखरेख करते थे. लेकिन आबिद ने अपनी हैसियत का भी फायदा उठाया. चूंकि निजाम कभी एक ही सूट दो बार नहीं पहनते थे. आबिद अपने मालिक के कपड़े और दूसरी चीजें खुद ही ले लेता और फिर उन्हें भुलक्कड़ निजाम को, जो कभी याद नहीं रखते थे कि उनके पास क्या है, नया बताकर वापस बेच देता.

आबिद ने धोखा देकर खूब पैसा कमाया
आबिद ने निजाम को धोखा देकर इतना पैसा कमाया कि उसने हैदराबाद में अपनी पत्नी के नाम से एक बड़ी दुकान खोल ली. दुकान का नाम ‘आबिद’ रखा गया. आज वह पूरा इलाका जहां वह दुकान थी ‘आबिद’ के नाम से जाना जाता है. अपने विशेषाधिकार प्राप्त पद के कारण आबिद निजाम तक पहुंच चाहने वाले व्यापारियों से भारी कमीशन लेता था. नियम यह था कि वस्तुएं निजाम के सामने पेश की जाएंगी और वह सिर्फ एक शब्द कहेगा – या तो ‘ पसंद ‘ (स्वीकृत) या ‘ ना पसंद ‘ (अस्वीकृत). पहले वाले को कीमत की परवाह किए बिना खरीदा जाएगा, जबकि दूसरे वाले को अस्वीकार कर दिया जाएगा.

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मैल्कम जैकब के पास था वो हीरा
उत्तर भारत में हर गर्मियों में ब्रिटिश राजधानी शिमला स्थानांतरित हो जाती थी. वहां अलेक्जेंडर मैल्कम जैकब नाम का एक रत्न और प्राचीन वस्तुओं का व्यापारी था. वह पूरे ब्रिटिश भारत में एक विलक्षण व्यक्ति के रूप में प्रसिद्ध था. लेकिन वह उतना ही रहस्यमयी भी था. कोई नहीं जानता था कि वह कहां से आया था या क्या करता था. कुछ लोग कानाफूसी करते थे कि वह एक रूसी जासूस है, तो कुछ लोग उसे एक जादूगर समझते थे. जो गुप्त कलाओं में पारंगत था और पानी पर भी चल सकता था. उसके इर्द-गिर्द इतना रहस्य और नाटकीयता थी कि उस समय के कई ब्रिटिश लेखकों ने उसे अपने उपन्यासों में एक पात्र के रूप में शामिल किया. रुडयार्ड किपलिंग ने अपने उपन्यास किम में भी उसके चरित्र को शामिल किया.

जैकब ने किया जीवन का सबसे बड़ा सौदा
जैकब महाराजाओं और उच्च पदस्थ अंग्रेज अधिकारियों के लिए प्राचीन वस्तुओं और रत्नों का सबसे महत्वपूर्ण व्यापारी भी था. आबिद के जरिए वह महबूब अली खान के नियमित संपर्क में था. उन्हें कई रत्न बहुत ऊंचे दामों पर बेच चुका था. जैकब एक अमीर और भोले-भाले राजकुमार को पाकर बहुत खुश था जिससे वह ढेर सारा पैसा कमा सकता था. 1891 में जैकब अपने जीवन का सबसे बड़ा सौदा करने की तैयारी कर रहा था. उसने हाल ही में दक्षिण अफ्रीका से मिले 184.75 कैरेट के ‘इंपीरियल’ हीरे को लंदन के एक कंसोर्टियम से 21 लाख रुपये में खरीदने और उसे निजाम को 50 लाख रुपये में बेचने की योजना बनाई थी. उसने आबिद को यह भी वादा किया था कि अगर सौदा पक्का हो गया तो उसे 5 लाख रुपये कमीशन मिलेगा.

ब्रिटिश सरकार ने हीरा खरीदने पर लगाई रोक
आबिद की मदद से जैकब निजाम से मिले. निजाम ने बताया कि वे हीरा खरीद लेंगे जो उस समय लंदन में था. शर्त यह थी कि निजाम यह तय करने के लिए स्वतंत्र होंगे कि उन्हें रत्न पसंद है या नहीं. यानी वे अब भी ‘ पसंद’ या ‘ ना पसंद’ कह सकते हैं. इसके बाद निजाम ने जैकब को 23 लाख रुपये की बैंक जमा राशि ट्रांसफर कर दी ताकि हीरा भारत लाया जा सके. इस बीच, निजाम के महल में मौजूद जासूसों के जरिए हीरा खरीदने में निजाम की दिलचस्पी की खबर ब्रिटिश सरकार तक पहुंच गई. ब्रिटिश सरकार महबूब अली खान की फिजूलखर्ची से चिंतित थी और उसने उन्हें इतना महंगा हीरा खरीदने से मना कर दिया. निजाम के प्रधानमंत्री भी इस तरह के सौदे के खिलाफ थे.

सौदा न होने पर चला मुकदमा
जुलाई 1891 में जैकब निजाम से उनके महल में मिला. चतुर जैकब ने लाल मखमल से ढकी चांदी की ट्रे में हीरा उन्हें भेंट किया. महबूब अली खान ने हीरा अपने हाथों में लिया, उसे कुछ बार देखा और बस दो शब्द कहे, ” ना पसंद”. जैकब स्तब्ध रह गया. उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा सौदा टूट गया था. इसके बाद जो हुआ वह अस्पष्ट और विवादों में घिरा हुआ है. कुछ दिनों बाद जैकब ने अपने बैंक को एक टेलीग्राम भेजा जिसमें निजाम द्वारा हीरा खरीदने की सहमति के बाद उन्हें लंदन में धनराशि भेजने के लिए कहा गया. बाद में उन्होंने दावा किया कि निजाम ने आबिद के माध्यम से उन्हें बताया था कि ‘ ना पसंद ‘ अंग्रेजों को बेवकूफ बनाने के लिए एक औपचारिकता मात्र थी. वह वास्तव में हीरा खरीदना चाहते थे. हालांकि ऐसा प्रतीत होता है कि निजाम ने अपना मन बदल लिया और अपनी जमा राशि वापस मांगी. जैकब ने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि सौदा हो चुका है. इसके कारण उस धन के लिए एक लंबा मुकदमा चला.

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मामला बना अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सनसनी
चतुर जैकब ने ब्रिटिश भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ वकीलों को नियुक्त किया था और उसने निजाम को कड़ी टक्कर दी. यह मुकदमा लंबा और महंगा था और इसने पूरे भारत और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी सनसनी मचा दी थी. निजाम का बयान लेने के लिए एक विशेष आयोग हैदराबाद भी भेजा गया था. इससे पहले कभी किसी भारतीय राजकुमार को ब्रिटिश अदालत में पेश नहीं किया गया था. इस घटना को बेहद शर्मनाक माना गया. जैकब हीरा जैसा कि इसे कहा जाने लगा था हैदराबाद में व्यापक रूप से ‘ मनहूस ‘ या ‘अशुभ’ कहा जाने लगा था. अंततः जैकब को धोखाधड़ी के आरोपों से अदालत ने बरी कर दिया, लेकिन उसे शेष राशि नहीं मिली.

अगले निजाम ने हीरे को बनाया पेपरवेट
इस मुकदमे के बाद महबूब अली खान मनहूस जैकब हीरे से कोई लेना-देना नहीं रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने उसे एक गंदे कपड़े में लपेटकर एक पुराने जूते में रख दिया और उसे एक दराज के पीछे रख दिया. महबूब अली खान का 1911 में निधन हो गया. कहा जाता है कि उनके बेटे और उत्तराधिकारी हैदराबाद के आखिरी निजाम मीर उस्मान अली खान को यह हीरा अपने पिता के जूते में मिला था. मानो या न मानो उन्होंने इसे पेपरवेट की तरह इस्तेमाल किया. अपने आकार और कीमत से बेपरवाह, जैकब हीरे ने उनके पिता के लिए इतनी शर्मिंदगी पैदा कर दी थी कि नए निजाम भी इससे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते थे.  खिरकार, दशकों बाद जैकब हीरा एक ट्रस्ट को हस्तांतरित कर दिया गया और 1995 में भारत सरकार ने इसे अधिग्रहित कर लिया. यह मुंबई स्थित भारतीय रिजर्व बैंक की तिजोरियों में सुरक्षित है. भारत सरकार ने निजाम के ट्रस्‍ट से जैकब हीरा 13 करोड़ रुपये से ज्‍यादा कीमत अदा कर खरीदा.

अल्बर्ट आबिद ने अपने मालिक को धोखा देकर इतना पैसा कमाया कि वह इंग्लैंड में एक बड़ी जमीन-जायदाद खरीद कर अपने परिवार के साथ वहीं बस गया. अलेक्जेंडर जैकब ने जैकब हीरे के मामले में न सिर्फ पैसा गंवाया, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा भी गंवाई. उसके ज्यादातर ग्राहक उसे छोड़कर चले गए. उसने अपनी दुकान बेच दी और बाकी जिंदगी एक घुमक्कड़ की तरह गुजारी. जैकब हीरे का आकर्षक इतिहास और इसकी दिलचस्प कहानी से जुड़े पात्र इसे दुनिया के सबसे दिलचस्प हीरों में से एक बनाते हैं.

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