चुनाव आयोग ने SIR को संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत जरूरी बताया है, जो 18 वर्ष से अधिक आयु के भारतीय नागरिकों को मतदान का अधिकार देता है. आयोग का दावा है कि यह पुनरीक्षण मतदाता सूची को शुद्ध और अद्यतन करने के लिए है. 2003 की मतदाता सूची में शामिल लोगों को सत्यापित माना गया है, लेकिन उसके बाद पंजीकृत या नए मतदाताओं को अब स्वघोषणा पत्र और जन्म या अभिभावक प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज जमा करने होंगे. कुरैशी का कहना है कि भले ही उद्देश्य पवित्र हो, इस प्रक्रिया का अमल कई पेचीदगियों से भरा है.
सबूत का बोझ मतदाता पर
इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी चिंता यह है कि सबूत का बोझ मतदाता पर डाल दिया गया है. कुरैशी ने चेतावनी दी कि इससे प्रवासी मजदूर, दलित, आदिवासी, शहरी गरीब, मुसलमान, बुजुर्ग और महिलाएं जैसे हाशिए के समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, जिनके पास अक्सर आवश्यक दस्तावेज नहीं होते. अगर कोई पहले से मतदाता सूची में है और कोई धोखाधड़ी या डुप्लीकेसी का सबूत नहीं है, तो दोबारा दस्तावेज मांगना अनुचित लगता है.
आयोग के सकारात्मक कदम
आयोग ने कुछ सकारात्मक कदम भी उठाए हैं जैसे 2003 की सूची को ऑनलाइन उपलब्ध कराना, एक लाख से अधिक बूथ स्तर के अधिकारियों को तैनात करना और दावा-आपत्ति प्रक्रिया को खुला रखना. लेकिन कुरैशी का मानना है कि ये कदम चिंताओं को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. बिहार जैसे राज्य में जहां बाढ़ और प्रवास जैसे मुद्दे पहले से चुनौती हैं, यह प्रक्रिया कई लोगों को मतदान से वंचित कर सकती है.
कानूनी रूप से अनुच्छेद 324 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 आयोग को यह अधिकार देते हैं. सुप्रीम कोर्ट भी आयोग की स्वायत्तता को मान्यता देता है. लेकिन कुरैशी ने चेताया कि लोकतंत्र में केवल कानूनी वैधता काफी नहीं, नैतिक वैधता और जन विश्वास भी जरूरी है. आयोग को निष्पक्ष दिखने के साथ-साथ दस्तावेज जमा करने की समय सीमा बढ़ानी चाहिए. साथ ही, इस प्रक्रिया को पहले उन राज्यों में लागू करना चाहिए जहां चुनाव दो-तीन साल बाद हैं. बिहार में यह हड़बड़ी अनावश्यक तनाव और अविश्वास को जन्म दे रही है.