नालंदा में “मानस नालंदा विश्वविद्यालय” में गूंजी राम कथा।
राजगीर के अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर कैंपस में चल रही ‘मानस नालंदा विश्वविद्यालय’ कथा के 7वें दिन मोरारी बापू ने अपने प्रवचन में रामायण के रहस्यों के बारे में बताया। इसके अलावा, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था और अध्यात्म के बीच कनेक्शन के बारे में भी बताया
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बापू ने नालंदा विश्वविद्यालय की प्रशंसा करते हुए इसे केवल दो शब्दों में ‘भली रचना’ कहकर संबोधित किया। उन्होंने इस बात पर विशेष प्रसन्नता व्यक्त की कि इस विश्वविद्यालय के मुख्य आर्किटेक्ट गुजराती हैं और इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया था।
सत्संग से मिलता है विवेक
अपने प्रवचन में बापू ने एक महत्वपूर्ण बात कही कि सत्संग से प्राप्त विवेक से व्यक्ति आलोचना में छिपे सच और प्रशंसा में छिपे झूठ को समझ सकता है। उन्होंने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि अध्यात्म की यात्रा में धैर्य अत्यंत आवश्यक है और निंदा व स्तुति दोनों को समान भाव से देखने का अभ्यास करना चाहिए।
राम नाम की महिमा और जुगल भाव
बापू ने ‘राम’ नाम के दो अक्षरों की महिमा बताते हुए कहा कि यह एक जुगल है, जिसकी बड़ी महत्ता है। उन्होंने व्याख्या की कि ‘र’ कार और ‘म’ कार जीव और जगत का जतन करता है। गुरु-शिष्य, श्रोता-वक्ता का यह द्वैत भाव अत्यंत आवश्यक है।
युद्ध कांड में छिपी शिक्षा
रामायण के युद्ध कांड का विवरण देते हुए बापू ने बताया कि उस काल में युद्ध में भी नैतिकता और नियमावली का पालन होता था। मेघनाद केवल अपने समकक्ष योद्धाओं से ही युद्ध करता था। उन्होंने स्पष्ट किया कि तुलसीदास युद्ध-वादी नहीं थे, फिर भी उन्होंने युद्ध का वर्णन इसलिए किया क्योंकि उसमें भी बुद्धत्व छिपा है।
वाल्मीकि और तुलसी का तुलनात्मक अध्ययनबापू ने वाल्मीकि रामायण और तुलसी के रामचरित मानस के बीच तुलनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण को निर्वाण इसलिए मिला कि उसने माता सीता से राम कथा सुनी थी। उन्होंने देवताओं के पांच विशेष लक्षण भी बताए जो वाल्मीकि रामायण में वर्णित हैं।
मन के बारह प्रकार
नालंदा यूनिवर्सिटी के अभ्यासक्रम का संदर्भ देते हुए बापू ने शास्त्रों में वर्णित मन के 12 प्रकारों की विस्तृत व्याख्या की, मृतक मन से लेकर मोहन मन तक। उन्होंने कहा कि इन सभी प्रकार के मन को शिक्षित-दीक्षित करना ही सच्चा विश्वविद्यालय है।
गुरु-शिष्य परंपरा पर जोर
बापू ने अपने 66 वर्षों के सेवा काल का उल्लेख करते हुए भावुक होकर कहा कि वे अपने श्रोताओं से बिना कुछ लिए सेवा करते रहे हैं क्योंकि वे उनसे अत्यधिक प्रेम करते हैं। साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि वे किसी के गुरु नहीं हैं, बल्कि केवल त्रिभुवन दादा के चेले हैं।
कथा का समापन
कथा के अंत में बापू ने विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण के जनकपुर पहुंचने तक की गाथा सुनाई, जहां वे सुंदर सदन में निवास करते हैं।