भोजपुर में रंगमंच से निकलकर एक या दो नहीं बल्कि 7 एक्टर्स ने बॉलीवुड में एक मुकाम बनाया है। लोग उनके असली नाम से कम उनकी एक्टिंग की वजह से उनके निभाए गए किरदार से ज्यादा जानते हैं। बात गैंग्स ऑफ वासेपुर में रामाधीर सिंह के बेटे का किरदार निभाने वाले
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लेकिन इन दिनों आरा का रंगमंच अपनी अस्मिता को बचाने की लड़ाई लड़ रहा है। कुछ कलाकार रंगमंच को जिंदा रखने के लिए सरकार और व्यवस्था से जद्दोजहद कर रहे हैं। रंगकर्मियों का कहना है कि सरकार हमारे प्रति उदासीन तो है ही, यहां से जो कलाकार निकले, वे भी हमारे लिए कुछ नहीं कर रहे हैं। ऊपर से डिजिटल मीडिया ने रंगमंच के लिए और चुनौतियां खड़ी कर दी है। स्थिति ये है कि हमें आरा की 150 साल पुरानी परंपरा को बचाने और जिंदा रखने के लिए मुफ्त में थिएटर, नुक्कड़ नाटक कर रहे हैं।
आरा में लगभग 150 सालों से रंगकर्मी नाटक, नुक्कड़ नाटक, समेत अन्य लोक सांस्कृतिक कार्यक्रम को करते आ रहे हैं। लेकिन, मौजूदा स्थिति ऐसी बनी है कि आरा शहर में रंगकर्मियों को केवल उदासीनता का ही सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में आरा के मनोज कुमार सिंह और उसकी टीम आरा के इतिहास को जीवित रखने में जुटे हैं।
उनका कहना है कि आरा शहर में नाटक करने के लिए न तो अच्छा हॉल है और ना ही व्यवस्था है। एक हॉल भी है, लेकिन उसमें मूल व्यवस्था उपलब्ध नहीं है। रंगकर्मियों का कहना है कि उस हॉल (नागरी प्रचारिणी) को बुक करने के लिए हजारों रुपए देने होते हैं।
बिना किसी सुविधा के रंगमंच करना ही मुश्किल होता है, तो हजारों रुपए हॉल बुक करने में कैसे सक्षम हो सकेंगे। लेकिन उसके बावजूद मनोज कुमार सिंह और उनके रंगकर्मियों ने आरा रंगमंच का नाम नाम रौशन किया है।
कलाकार रंग मंच को जिंदा रखने के लिए फ्री में नाटक कर रहे हैं।
गंगा स्नान नाटक को राष्ट्रीय स्तर पर मिली पहचान
मनोज कुमार सिंह ने बताया कि पिछले साल 2024 में भारत रंग महोत्सव में गंगा स्नान नाटक के लिए चयनित हुए और दिल्ली में आरा के सभी कलाकारों ने ‘गंगा स्नान’ नाटक को राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किया। बेहतरीन एक्टिंग की वजह से भारतीय रंग महोत्सव (भारंगम ) में अपनी पहचान बनाई और लाखों दिलों को जीत लिया। लेकिन, आरा शहर से निकलकर राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचकर अपना प्रदर्शन करने के बाद भी इन कलाकारों के चारों तरफ अंधेरा है।
उन्होंने कहा कि थिएटर का जुनून है, जो हमें वहां तक लेकर गया। नहीं तो अगर बुनियादी समस्याओं की बात करें तो एक थिएटर करने के लिए महत्वपूर्ण जगह होनी चाहिए, हॉल होना चाहिए, लाइट होनी चाहिए, अन्य तरह की सुविधाएं होनी चाहिए या सरकार की ओर से सुविधाएं मिलनी चाहिए। ऐसा कुछ यहां नहीं है। थिएटर हमेशा से अपने बल पर है और अपने बलबूते ही यहां का थिएटर चल रहा है। थिएटर को लेकर प्रशासन या राजनीतिक तौर पर उदासीन ही है। सांस्कृतिक गतिविधियों को जिस तरह का सहयोग मिलना चाहिए, उस तरीके का सहयोग नहीं मिल पाता है। अगर सरकार देती भी है तो वो चंद लोगों के ही हाथ में जाता है।

खुले आसमान के नीचे कर रंगकर्मी कर रहे है नाटक।
पटना जैसे शहरों में 50 से ज्यादा संस्था
मनोज कुमार सिंह का कहना है कि जो सुविधा सरकार की तरफ से आ रही है, जैसे प्रोडक्शन ग्रांट है, जो छोटे छोटे शहरों में नहीं आता है। पटना जैसे शहरों में 50 से ज्यादा संस्था है, जहां प्रोडक्शन ग्रांट लेती है। लेकिन बाकी जो बिहार का जिला है, वहां नहीं होता है। तो ऐसे में आरा से निकलकर राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना बहुत बड़ी बात है।
बेगूसराय और पटना में लोग अच्छा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि आरा का इतिहास ऐसा नहीं है कि रंगमंच को लेकर 150 सालों का है, उससे पहले भी गांवों में रंगमंच होता होगा। आज ग्रामीण रंगमंच वहीं का वहीं रह गया है। बड़े बड़े शहरों में नाटक हो रहे हैं, लेकिन गांव का रंगमंच में कोई विकास नहीं हो पाया है।
बॉलीवुड जाने के बाद रंगकर्मी नहीं देते ध्यान
गांव के रंगमंच पर न तो सरकार का कोई ध्यान और न ही राष्ट्रीय स्तर पर जो रंगकर्मी पहुंच गए है, उनका कोई ध्यान है। जितने भी रंगकर्मी रंगमंच के बदौलत बॉलीवुड तक गए, उनका भी इसपर ध्यान नहीं है। वे लोगों ने बस रंगमंच को अपना माध्यम बनाए और फिर भूल गए। उन्होंने बताया कि वहीं आरंगम के लिए वैसे लोगों को जुटाया जो थिएटर से जुड़े हुए हैं।
एक्टर ही मुख्य होता है। हमने गांव से म्यूजिशियन को लिया है। इसलिए हमने भोजपुरी नाटक पर काम करना शुरू कर दिया। लोक सांस्कृतिक पर काम करना शुरू किए और पूरे देश में काम करना शुरू किए। हम सभी चैता, कजरी किए, तो पूरे देश ने देखा, ताली बजाया और प्रोत्साहन किया। तो इस तरह के कार्यक्रम और बनने चाहिए। हमारा लोकरस रंग के कार्यक्रम है। जो देश के कोने-कोने में हुआ। इसमें कजरी-झूमर भोजपुरी कला की झलक दिखी। जिसे पूरे देश के लोगों ने पसंद किया।

भोजपुर से निकलकर भारतीय रंग महोत्सव तक लहरा रहे परचम।
हम लोगों ने साथ में की पढ़ाई
रंगकर्मी पंकज भट्ट ने बताया कि लोगों को जुटाना मुश्किल होता है। हम लोग गांव-गांव जाकर मेहनत किया। 25 लोगों की टीम को साथ लेकर चलें हैं। भारंगम में जाना एक यादगार घटना है। नाटक को करने का बस एक ही उद्देश्य था कि जो हमारे बुजुर्ग हैं, तो वो केवल हमारे पेरेंट्स नहीं है, वो हमारी आत्मा है, हमारी संस्कृति है। वो हमारे सब कुछ है। उनके साथ मिसबिहेव करना बहुत ही गलत चीज हैं। जिसके साथ आज के दौर में उचित नहीं हो रहा है। जिसे हम लोगों ने गंगा स्नान नाटक में दिखाया था।
पंकज भट्ट ने बताया कि भारंगम के बाद हम लोगों ने मृत पड़े आरा के रंगमंच को जीवित किया है। रंगमंच के विकास पर पूछे गए सवाल को लेकर रंगकर्मी ने बताया कि जो नए युवा आ रहे है डिजिटल के दौर में उनके पास अनुभव नहीं है।
नाटक करने के बाद बुजुर्गों का आशीर्वाद मिला है। हमने मृत पड़े रंगमंच को जिंदा किया है। डिजिटल यूज करने वाले युवाओं को नाटक का अनुभव नहीं है। टैलेंट नहीं आने पर स्थायी रूप से पैसा नहीं कमा सकते हैं। रंगमंच के साथी सीरियल में लीड कैरेक्टर कर रहे हैं। ये अच्छा भी है। फायदा फेसबुक नहीं, बल्कि रंगमंच देगा।

छोटे शॉर्ट फिल्म से लोगों को कर रहे जागरूक।
2004 से ही रंगमंच पर गायन का काम किया
रंगकर्मी गायक श्याम शर्मिला ने बताया कि भारंगम से लौटने के बाद बहुत अच्छा लगा, लगभग 2004 से ही रंगमंच पर गायन का काम कर रहे है। जिसके बाद मेरी मुलाकात मनोज कुमार सिंह से ही फिर हमलोगों ने प्लानिंग किया कि हम लोगों को रंगमंच को लेकर काम करना चाहिए। जिसके बाद गंगा स्नान नाटक को हम सभी ने मिलकर तैयार किया।
नाटक को लेकर करीब 15 से 20 दिन उसके म्यूजिक पर काम किया। लेकिन अगर उस नाटक के गाने की बात करें तो भिखारी ठाकुर ने खुद ही नाटक के आधार पर ही गीत को लिखा है। इसलिए हम लोगों ने उस गीत में ज्यादा छेड़ छाड़ नहीं किया है। बस नाटक को खूबसूरत बनाने के लिए थोड़ा खुद से क्रिएट किया है।

भोजपुरी की साख बचा रहे है रंगमंच के कलाकार।
हम लोग समाज के मुद्दों को दिखाते
रंगकर्मी साहब कुमार यादव ने बताया कि नाटक के माध्यम से हम लोग समाज के मुद्दों को दिखाते है, सरकारी एजेंडों को भी नाटक के जरिए दिखाते है। नुक्कड़ नाटक करते है। लेकिन उसके बाद भी हमारे शहर में कोई अच्छा हॉल नहीं है, जहां नाटक किया जाए। नाटक समाज का आइना होता है, लेकिन हमें अच्छी सुविधा नहीं दी जा रही है।
शहर में एक हॉल भी है तो उसकी कीमत करीब सात हजार के आस पास है। रंगकर्मी लड्डू भोपाली ने बताया कि नाटक करने में या नुक्कड़ नाटक करने में बहुत परेशानी होती है। नुक्कड़ नाटक भी रंगमंच का ही एक हिस्सा है। ये रंगमंच का जड़ है।
नुक्कड़ नाटक एक जरुरी अंग है। सरकारी एजेंडों पर नुक्कड़ नाटक के माध्यम से काम कराने के बाद सरकार हम लोग को भूल जाती है। जिस चीज से सरकार अपना फायदा देखती है, उसकी चीज को सरकार काम होने के बाद भूल भी जाती है।
भोजपुर में 100 साल पहले बहुत बड़ी टीम हुआ करती थी। लेकिन, आज एक भी टीम सही ढंग से नहीं है। आज कलाकारों को किसी भी तरह कि कोई सुविधा नहीं मिल रही है। पेमेंट करने के बाद सरकार हमें भूल जाती है। सरकार से ध्यान देने की अपील की गई है।

सैकड़ों नाटक ने लोगों के दिल को छुआ।
अब जानिए रंगमंच के कलाकारों के आरोपों पर सीनियर एक्टर्स ने क्या कहा?
वरिष्ठ रंगकर्मी और नाट्य गुरु चंद्रभूषण पाण्डेय ने कहा कि रंगमंच की आत्मा को शब्द और अभिनय के माध्यम से जीवंत करने वाले कलाकार जब फिल्मों और टीवी की दुनिया में नाम कमा लेते हैं, तो लौटकर अपने जड़ों यानी रंगमंच पर नहीं आ पाते। इसका सबसे बड़ा कारण है—रंगमंच की बदहाली और सरकारी उपेक्षा। वे कहते हैं, “रंगमंच की स्थिति वर्षों से जस की तस बनी हुई है। सरकार कभी भी रंगकर्मियों या रंगमंच को लेकर गंभीर नहीं रही। जो कलाकार टीवी या फिल्मों तक का सफर तय करते हैं, वो लौट कर नहीं आते क्योंकि यहाँ ना तो काम है, ना सम्मान, और ना ही आर्थिक स्थिरता।”
चंद्रभूषण पाण्डेय के अनुसार, रंगमंच आत्मिक संतुष्टि देता है, पर इस दौर में केवल संतुष्टि से पेट नहीं भरता। पैसे की कमी और रोजगार के अवसर न होने की वजह से कई होनहार कलाकार मायानगरी में ही अपना बसेरा बना लेते हैं।
भोजपुरी फिल्मों में खलनायक की चर्चित भूमिका निभाने वाले अभिनेता विष्णु शंकर बेलू, जो दो दशकों से मुंबई में सक्रिय हैं, भी कुछ ऐसी ही पीड़ा व्यक्त करते हैं। उनका कहना है, “रंगमंच से जुड़ने की इच्छा तो होती है, पर पारिवारिक जिम्मेदारियां और पैसे की जरूरतें आड़े आ जाती हैं। काम की तलाश में दिन, महीने और साल बीत जाते हैं और रंगमंच सिर्फ एक स्मृति बनकर रह जाता है। फिल्मों और अपने शहर के बीच की दूरी कभी पाटी नहीं जा सकी।”

नाटक को पसंद कर रहे है लोग।
ओपी पांडेय बोले- थिएटर हमारा पहला प्यार, लेकिन हमारी पहुंच से दूर होता जा रहा
वहीं, आरा के रंगमंच से निकलकर टेलीविजन और फिल्म इंडस्ट्री में निर्देशक और लेखक के रूप में पहचान बना चुके ओ. पी. पाण्डेय मानते हैं कि “थिएटर हमारा पहला प्यार है, लेकिन हमारी पहुंच से दूर होता जा रहा है। हम जैसे सैकड़ों रंगकर्मी अपने पैशन और पेट की जरूरतों के बीच लगातार उलझे हैं। अगर स्थानीय स्तर पर तकनीकी टीम, कलाकार और रंगकर्मियों को काम और उचित मेहनताना मिले, तो कोई भी कलाकार बाहर जाने को मजबूर न हो।”
पाण्डेय सरकार पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं, “सरकार सिर्फ नुक्कड़ नाटक करवा कर प्रचार करवाने को ही रंगकर्म का विकास मान बैठी है। कुछ चहेतों को प्रोजेक्ट देकर मान लिया जाता है कि कलाकारों को काम मिल गया। जबकि सच्चाई यह है कि रंगकर्मी अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति की जगह अब प्रोपेगेंडा का हिस्सा बनते जा रहे हैं। यह कला का नहीं, कला की हत्या का युग है।”