Sunday, July 20, 2025
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वो दाल जिसे बंगाली हिंदू मानते हैं मांसाहारी, जानें इसका महाभारत से क्या नाता


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Masoor Ki Daal: वैसे दाल शाकाहारी भोजन का हिस्सा है, लेकिन एक दाल ऐसी भी है जिसे मांसाहारी माना जाता है. लाल मसूर की दाल को ऐसा क्यों माना जाता है. इसे लेकर ऐसी मान्यता क्यों है इसके बारे में बात करेंगे…

जब मुगल भारत आए तो उन्होंने लाल मसूर की दाल को अपने आहार में शामिल किया.

हाइलाइट्स

  • महाभारत काल में कामधेनु के खून से मसूर दाल उगने की कथा है
  • लाल मसूर की दाल को बंगाली हिंदू मांसाहारी मानते हैं
  • गौड़ीय वैष्णववाद में मसूर दाल को मांस के बराबर माना जाता है
Lal Masoor Ki Daal: दालें तो भारतीय परिवारों में भोजन का अहम हिस्सा है. आप देश के किसी भी हिस्से में चले जाएं, वहां दाल किसी न किसी रूप में जरूर खायी जाती है. खासतौर से अगर शाकाहारी भोजन की बात की जाए तो वो दाल के बिना पूरा नहीं होता. दाल और चावल तो किसी न किसी रूप में हर भोजन में शामिल होते हैं. लेकिन एक दाल ऐसी भी है जिसे हिंदू, विशेष रूप से बंगाली हिंदू मांसाहारी मानते हैं. 

लाल मसूर की दाल को हिंदू धर्म में तामसिक भोजन की कैटेगरी में रखा गया है. हिंदू धर्म में तामसिक चीजों को भोजन में शामिल करने की मनाही है. लाल मसूर की दाल को लहसुन और प्याज के साथ तामसिक या मांसाहार की श्रेणी में रखा गया है. इसीलिए ब्राह्मण, साधु और संन्यासियों के लिए इसका सेवन वर्जित है. माना जाता है कि मांसाहारी भोजन, प्याज और लहसुन की तरह लाल मसूर सुस्ती लाती है और नकारात्मक विचारों को बढ़ावा देती है. इसके अलावा भी इसे शाकाहार ना मानने के पीछे कई मान्यताएं हैं. आइए जानतें हैं क्या हैं वो मान्यताएं…  

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प्रोटीन की ज्यादा मात्रा
टाइम्सनाऊ इंग्लिश की एक रिपोर्ट इस तथ्य को उजागर करती है कि बंगालियों द्वारा लाल मसूर दाल को वर्जित क्यों माना जाता है. पहले मान्यता थी कि विधवाओं को शाकाहारी भोजन करना होता था. लेकिन उन्हें लहसुन, प्याज, मसूर दाल और पुई शाक खाने की मनाही थी. क्योंकि लाल मसूर की दाल में प्रोटीन की उच्च मात्रा उनके हार्मोन को उत्तेजित करती थी. साथ ही उन्हें यौन रूप से ज्यादा सक्रिय बनाती थी. इसलिए इस दाल का सेवन उनके लिए वर्जित कर दिया गया. ताकि उनके अंदर कोई नकारात्मक भावनाएं ना भड़क सकें.

महाभारत काल से भी नाता
इसके अलावा इसको वर्जित की श्रेणी में रखने के लिए महाभारत काल की एक पौराणिक कहानी भी है. दरअसल यह द्वापर युग में महाभारत के समय की बात है. जब हैहय वंश के राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने ऋषि जमदग्नि से पवित्र गाय कामधेनु को चुराने की कोशिश की थी. जब राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन कामधेनु को घसीट रहे थे तो उसमें से रक्त बहने लगा. जहां भी उसके रक्त की बूंदें गिरीं वहां मसूर दाल का पौधा उग आया. उसके बाद से हिंदुओं का एक वर्ग इस दाल को मांसाहारी मानकर परहेज करता है.  

दिव्य गाय थीं कामधेनु
हिंदू धर्म ग्रंथों में कामधेनु को एक दिव्य गाय के रूप में वर्णित किया गया है. यह गाय देवताओं के समुद्र मंथन से निकली थी. बताया जाता है कि उसे देवताओं ने जमदग्नि और वशिष्ठ जैसे ऋषियों को उपहार के रूप में दिया था. उन्होंने कामधेनु गाय का उपयोग अनुष्ठान करने और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए किया था. किंवदंती के अनुसार, शक्तिशाली राजा सहस्त्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि के आश्रम से कामधेनु को चुराने का प्रयास किया. इसके बाद हुए संघर्ष में राजा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने कामधेनु पर बाणों से हमला किया. ऐसा कहा जाता है कि जहां भी कामधेनु गाय का खून जमीन पर गिरा, वहां लाल मसूर दाल का पौधा उग आया. इसीलिए मसूर दाल को सीधे दिव्य गाय के कष्ट और बलिदान से जोड़कर देखा जाता है. इसी वजह से ब्राह्णण इसे तामसिक भोजन मानते हैं. 

आहार गौड़ीय वैष्णववाद
बहुत कम लोग जानते हैं कि बंगाली आहार गौड़ीय वैष्णववाद से बहुत प्रभावित है. इसके अनुसार मसूर दाल को मांस के बराबर माना जाता है. इसीलिए उनके किसी भी अनुष्ठान में इस दाल को खाने की अनुमति नहीं है. हो सकता है कि ऐसा इसके दिखने के तरीके के कारण हो. क्योंकि वैष्णवों को काले या गहरे रंग के भोजन से कोई लगाव नहीं है. उनके यहां इसे अशुभ माना जाता है. गौड़ीय वैष्णववाद के साहित्य में भी लाल मसूर दाल के सेवन की मनाही है. 

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राहु के खून से पैदा हुई मसूर
ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान विष्णु ने स्वरभानु नाम के दैत्य का मस्तक काटा तो वह मरा नहीं बल्कि उसका शरीर दो हिस्सों में बंट गया. उसका सिर राहु कहलाया और धड़ केतु. ऐसा माना जाता है कि मस्तक कटने से जो रक्त गिरा उसी से लाल मसूर की दाल पैदा हुई. यही कारण है साधु-संत और वैष्णव पद्धति को मानने वाले लाल मसूर की दाल को मांसाहार के रूप में देखते हैं और भूलकर भी इसे नहीं खाते.

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