गयाजी जिला मुख्यालय से महज 8 KM दूर बहादुर बीघा गांव का चुरामन टोला। जिसे दिव्यांगों के गांव के नाम से जाना जाता है। यहां हर चौथे घर में कोई ना कोई दिव्यांग मिल जाएगा।
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लोगों का मानना है कि यहां के पानी में फ्लोराइड की मात्रा काफी अधिक है, इस कारण लोग दिव्यांग हो रहे हैं। इसके सबसे अधिक शिकार बच्चे और बुजुर्ग हैं। 2016 में लोक स्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग ने पानी के सैंपल की जांच की थी, जिसमें 3.44 मिलीग्राम/लीटर फ्लोराइड पाया जाता था।
क्या है गांव में बच्चों और बुजुर्गों के दिव्यांग होने की कहानी? क्या आज भी स्थिति वैसी ही है? इसकी पड़ताल के लिए हम बहादुर बीघा गांव पहुंचे।
ग्राउंड रिपोर्ट में पढ़िए और देखिए सच्चाई…।
गांव के बाहर ही एक व्यक्ति लाठी के सहारे चलता मिला। हमने (भास्कर रिपोर्टर) उससे गांव के लोगों के दिव्यांग होने के बारे में पूछा। उन्होंने बताया, ‘सच बात है कि गांव के लोग दिव्यांग हैं। हर चौथे घर में कोई-न-कोई दिव्यांग हैं। लेकिन यह कहना कि पूरा गांव ही दिव्यांग है- गलत है।’
वह हमें गांव के चुरामन टोला में ले गए, जहां सबसे अधिक लोग दिव्यांग हैं। पहाड़ से घिरे इस गांव में करीब 1500 लोग रहते हैं। चुरामन टोले में सबसे अधिक अति पिछड़े समाज के लोग रहते हैं।
बीमार होने पर कराते थे झाड़-फूंक
गांव के नरेश मांझी ने बताया, ‘20 साल पहले लोग जहां-तहां कचरा फेंक देते थे। पूरे गांव में कूड़े का अंबार था। लोग नहाते नहीं थे। खुले में शौच करते थे। बरसात के समय में लोगों को डायरिया हो जाता था, इसमें सबसे अधिक बच्चे और बुजुर्ग शिकार होते थे। लोग इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाने के बजाए ओझा के पास जाते थे। झाड़-फूंक में लोग या तो मर जाते थे या काफी लम्बे समय तक बीमार रहते थे।’
हमने देखा गांव में सारे दिव्यांगों की उम्र 25 साल से लेकर 50 साल के बीच है। गांव में महिला पुरुष मिलाकर लगभग 100 से अधिक आदमी दिव्यांग हैं, लेकिन सबकी उम्र 25 साल के ऊपर है।
शहर से लौटा युवक तो बदली गांव की तस्वीर
गांव वालों ने बताया, ‘करीब 20 साल पहले काफी लोग दिव्यांग हो रहे थे। गांव से बड़े स्तर पर कचरा हटाया गया है। इसके बाद स्थिति में सुधार है।’
संतोष मंडल ने बताया, ‘पहले अस्पताल तक पहुंचने में काफी परेशानी थी। एक तरफ से पहाड़ है, दूसरी तरफ से कच्चा रास्ता था। गांव में ना किसी के पास शहर जाने का साधन था और ना ही ढंग का रास्ता। गांव में कई सालों से कचरा का उठाव नहीं हुआ था। ऐसे में एक ही जगह पर कचरा जमे-जमे सड़ गया था। इससे लोग बीमार हो रहे थे।’
‘गांव का एक लड़का हरेंद्र शहर गया था। वहां से लौटा तो उसने गांववालों को जागरूक कर कचरा साफ करवाया, तब से पूरा गांव गंभीर बीमारियों से बच रहा है। हरेंद्र कुमार अभी गांव के विकास मित्र हैं।’
सारे साथी दिव्यांग हो गए, मैं बच गया
गांव के विकास मित्र हरेन्द्र कुमार लड़कों को फ्री में पढ़ाते हैं। हमें वह बच्चों को पढ़ाते हुए मिले। हरेंद्र ने बताया, ‘मैं गांव का पहला लड़का था जिसने गांव से बाहर जाकर पढ़ाई की थी। हमारे साथ के सारे लड़के दिव्यांग हो गए थे। मैं बाहर चला गया तो बच गया।’
उन्होंने बताया, ‘गांव के लोग दिव्यांग हैं, यह बात सही है। गांव के पानी में फ्लोराइड भी अधिक था। 2010 में पढ़ाई कर वापस घर लौटे। उस समय गांव के पानी की जांच हुई थी, जिसमें फ्लोराइड अधिक होने की बात सामने आई थी। उसी फ्लोराइड की वजह से यहां के लोग दिव्यांग होते थे। हर घर में दो से तीन आदमी दिव्यांग हो रहे थे।’

एक तरफ से पहाड़ से घिरे इस गांव में करीब 1500 लोग रहते हैं। बीते 15 साल से एक भी दिव्यांग का केस नहीं आया है।
‘मैंने सबसे पहले इस पर काम करना शुरू किया कि आखिर इस इलाके में सबसे अधिक फ्लोराइड क्यों है? इसको लेकर कई एक्सपर्ट से मिले। कुछ NGO से मिले। प्रशासनिक अधिकारियों से भी मिले। इसी दौरान कुछ NGO वाले गांव का न्यूज देखकर पहुंचे। उन्होंने भी हमारे साथ काम करना शुरू किया।’
गंदगी से पानी में बढ़ा रहा था फ्लोराइड
हरेंद्र ने बताया, ‘कुछ रिसर्चर ने बताया कि गंदगी की वजह से यहां के पानी में सबसे अधिक फ्लोराइड है। हमने सबसे पहले गांव का कचरा साफ करना शुरू किया। बारिश के मौसम में पानी में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती थी। उस समय कुछ लोग कुआं का पानी पीते थे।’
‘गांव के लोग जानकारी के अभाव में अपने बच्चों और खुद पर ध्यान नहीं देते थे। अगर किसी को कोई बीमारी होती थी, उसे खुद नहीं पता था कि उसे क्या करना है और किसके पास जाना है। लोगों को पता ही नहीं था कि यहां लोगों को क्या हो रहा है और ना लोग इसको लेकर जागरूक थे।’
लोगों को जागरूक कर गांव से हटवाया कचरा
हरेंद्र ने बताया, ‘हमने सबसे पहले गांव का कचरा हटाने का निर्णय लिया। इसको लेकर हमने गांव के लोगों को जागरूक किया कि गांव में कचरा की वजह से लोग सबसे ज्यादा बीमारियों से परेशान हैं। हमने सबको समझाया कि जब तक कचरा नहीं हटेगा, तब तक यहां से बीमारी नहीं हटेगी। बीमारी होने पर डॉक्टर के पास जाए न कि किसी ओझा के पास।’

15 साल में कोई नहीं हुआ दिव्यांग
गांव वालों का कहना है, ‘जब से गांव का कचरा साफ हुआ है, तब से हालत बेहतर है। बीते 15 साल से एक भी आदमी दिव्यांग नहीं हुआ है।’
हम पूरे गांव में घूमे। 2 से 15 वर्ष तक के बच्चों से बात की। कोई भी बच्चा दिव्यांग नहीं मिला। सब दौड़ते-खेलते-कूदते मिले। वहीं, गांव में कुछ घर ऐसे भी मिले जहां एक घर में 3-4 आदमी दिव्यांग हैं। हालांकि, सबकी उम्र 25-50 साल के बीच है। इनकी संख्या करीब 100 से अधिक है।
गंदगी से पानी में बढ़ता है आर्सेनिक और फ्लोराइड
पटना मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (PMCH) के अर्थो डिपार्टमेंट के पूर्व HOD अर्जुन सिंह ने बताया, ‘जिस गांव में गंदगी ज्यादा है वहां के पानी में फ्लोराइड की मात्रा बढ़ जाती है। गंदगी की वजह से बीमारी हो और समय से इलाज नहीं हो तो शरीर में विटामिन डी की कमी हो जाती है। हड्डी कमजोर हो जाती है, जिससे लोग दिव्यांग हो जाते हैं। इसके अलावा बहुत ऐसे कारण हैं, जिससे लोग दिव्यांग हो जाते हैं। इसमें पोलियो भी एक है।’

सवाल- पीने के पानी में आयरन, फ्लोराइड और आर्सेनिक कितना होना चाहिए?
जवाब- ICMR ने पीने के पानी में ज्यादा से ज्यादा आयरन की मात्रा 1.0 PPB (पार्ट्स पर बिलियन) तय की है।
आर्सेनिक के लिए निर्देशित मानक या मैक्सिमम कंटामिनेशन लेवल (MLC) 10 PPB (WHO के अनुसार) है, जिसे ज्यादातर विकसित देश मानते हैं। विकासशील देश जैसे भारत में पीने वाले पानी में आर्सेनिक की मात्रा 50 PPB मानी गई है।
वहीं, नॉर्मल पानी में फ्लोराइड की मात्रा 0.7 PPM (पार्ट्स पर मिलियन) से 1.00 PPM होनी चाहिए।

सवाल- फ्लोराइड और आर्सेनिक से बचाव के लिए क्या करना चाहिए?
जवाब- RO का पानी पिएं, पानी उबाल कर पिएं, और जल निगम की सप्लाई भी सुरक्षित है।
वहीं, सरकार का दावा है कि जिन वार्ड के पानी में आर्सेनिक मिला है वहां जल मीनार(वाटर टावर) से घर-घर तक पानी पहुंचाया जा रहा है। हर घर नल का जल पहुंच रहा है। मिनी जल मीनार में आर्सेनिक रिमुवल प्लांट लगाए गए हैं।
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