हिना कमाल |
भले ही दुनिया के सात अजूबों मे शामिल होकर ताजमहल ने भारत का नाम रौशन किया हो लेकिन आज भी देश के विभिन्न हिस्सों मे ताजमहल जैसी तमाम अनमोल धरोहर मौजूद हैं जो समुचित रख-रखाव के अभाव मे अंतिम सांस लेने को मजबूर हैं जिन्हें सजाना-संवारना तो दूर अवैध कब्जा कर उनके वजूद को ही मिटा देने का खेल खेला जा रहा है।ऐसी ही एक अनमोल धरोहर है खलीलाबाद मे मौजूद क़ाजी खलीलुर्रहमान का किला और खलीलाबाद से मगहर तक बनी सात किलामीटर लम्बी और बारह फिट चौडी सुरंग।प्रशासनिक लापरवाही और रख रखव के अभाव मे यह ऐतिहासिक धरोहर अब खण्डहर मे तब्दील हो चुकी है। इसके आधे से अधिक हिस्से पर कोतवाली का कब्ज़ा है।किले की शेष टूटी-फूटी इमारत और बदहाल सदर दरवाजा किले की बदहाली की मुँह बोलती दास्तान बयान कर रही है।प्रशासनिक लापरवाही व उदासीनता का आलम तो यह है कि नगर पालिका खलीलाबाद के मौजूदा रिकार्ड में कोतवाली तो दर्ज है मगर किले का नाम ही गायब है।
कहा जाता है कि कबीर की निर्वाण स्थली मगहर के मूल निवासी काजी खलीलुर्रहमान की मुलाक़ात कहीं मुगल बादशाह औंरगंरेब से हो गयी।बात-चीत से प्रभावित होकर उन्होने काजी साहब को गोरखपुर इलाके का अपना चकलेदार बना दिया।मगहर,बांसी व गोरखपुर के डोमकटर राजाओं द्वारा सरकारी लगान न दिये जाने के कारण केन्द्रीय स्थिति को ध्यान में रख कर क़ाजी साहब ने खलीलाबाद मे इस किले का निर्माण करवाया था।इसके चारो तरफ बस्तियां बसायी गईं क्योंकि उस समय यह क्षेत्र घने जंगलो से आच्छादित था।यहां रहने वाली डोमकटर, थारू एवं राजभर जनजातियां इस पूरे हिस्से पर काबिज थीं और केन्द्रीय सत्ता परिवर्तन के साथ अपने को स्वतंत्र घोषित कर रही थीं।मगहर, बांसी एवं डोमिनगढ के राजाओं से लगान की वसूली मे आसानी के साथ पडाव की समूचित व्यवस्था के मद्देनजर करीब 50 एकड़ क्षेत्रफल मे बाग लगवाया गया था जहां पर मुगलों के शासन काल मे उनकी सेनाएं रहती थीं।सन 1857 मे शुरू हुयी जनक्रान्ति को दबाने के लिए मेजर रोलेट क्राफ़ट के नेतृत्व मे अंग्रेजों और गोरखा फौजों ने इस ऐतिहासिक किले पर धुँआधर बमबारी की । सन 1857 के गदर के बाद इसी बाग मे अंग्रेजी सेनाओं का डेरा हो गया जो किले से 100 मीटर की दूरी पर स्थित हैं।सन 1978 तक इस बाग को पडाव वाली बाग के नाम से जाना जाता था।अब यहां पर बस्तियां आबाद हो गईं और पड़ाव वाली बाग का वजूद समाप्त हो चुका है। लोग इसे नगर पालिका खलीलाबाद क्षेत्र के मोती नगर मुहल्ले के नाम से जानते हैं।
क़ाज़ी साहब भले ही बादशाह औरंगजेब के प्रमुख सिपहसलार रहे हों लेकिन उनकी सोच बादशाह अकबर जैसी थी।वह अपनी हिन्दू व मुस्लिम प्रजा को अपनी दो आंखों की तरह मानते थे।उन्होनें गोरखपुंर व बस्ती के बीचो-बीच स्थित खलीलाबाद को बसाने का निर्णय लिया।करीब पाँच एकड क्षेत्रफल मे फैले इस ऐतिहासिक किले के पश्चिम मुख्य द्वार स्थापित किया गया।किले के क़रीब उन्होनें मस्जिद के साथ ही साथ समय माता मन्दिर की भी स्थापना करायी।किले को अपने गांव मगहर से जोड़ने के लिए उन्होने सात किलोमीटर लम्बी तथा बारह फिट चौड़ी सुरंग भी बनवायी जिसके रास्ते वह रोज अपनी टमटम से मगहर से किले तक आते थे जहाँ पर जहॉ उनका दरबार लगता था।रियाया की फरीयाद सुनते और फिर मगहर वापस चले जाते थे।चूंकि इस क़स्बे को काजी खलीलुर्रहमान ने बसाया था इसलिये इसका नाम खलीलाबाद पड़ गया। वर्तमान मे यह संत कबीर नगर ज़िले का ज़िला मुख्यालय है। खलीलाबाद के इस किले मे काजी साहब का आवास दीवान-ए-आम व खास स्थित था।सन 1857 की गदर में काजी साहब के वारिसों ने अंग्रेजी हूकुमत से जमकर युध्द किया था। इसमे उन्होंने इलाके के कई राजाओ का सहयोग लेकर दुश्मन से लोहा लिया था।1858 में अंग्रेजों की गोरखपुर में जुटी फौज एंव गोरखा फौजों से मिली सहायता से मेजर क्राफ़ट के नेतृत्व में डोमिन गढ, मगहर एवं खलीलाबाद बखिरा, नगर एवं अमोढा के राजाओ पर गोले बरसाये और उन्हे नेस्तनाबूद कर दिया। अंग्रेज़ो ने किले के करीब ही डेरा डाल दिया था और इस पर कब्जे का प्रयास किया गया। क़ाजी के वंशजो एंव शुभचिंतको ने अंग्रेजों के छक्के छुडा दिये। इस लडाई में कई लोग शहीद हुए मगर किले पर अंग्रेजो का परचम नही लहरा सका। इस युध्द में काजी खलीलुर्रहमान के उत्तराधिकारी व परिजन मारे गये जिन्हे किले के अन्दर और दक्षिण स्थित क़ब्रिस्तान में दफना दिया गया था। जो बच गये वो मगहर जाकर बस गये। यह भी कहा जाता है की मुगल शासन के पतन के साथ ही इसकी बदहाली शुरू हो गयी।एकता का प्रतीक क़ाज़ी साहब का किला अब पूरी तरह खण्डहर मे तब्दील हो चुका है और अपनी पहचान खोत जा रहा है।किले के पश्चिमी हिस्से की टूटी मेहराब तथा सदर दरवाजे का टूटा हुआ हिस्सा किले की बाहरी दीवार की थाक और सदर गेट की बदहाल स्थिति इस अनमोल धरोहर की बदहाल तस्वीर बयान कर रहे हैं।
बताया जाता है कि 1857 के गदर के बाद गोरखपुर से अलग कर जब 1965 में बस्ती जनपद की स्थापना की गयी तो इस किले में खलीलाबाद तहसील मुख्यालय बनाया गया तथा सुरक्षा की दृष्टि से सरकारी खजाना और गारद यहां किले मे रहने लगा। आजादी मिलने के 77 साल बाद भी यह किला उपेक्षा का शिकार है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब तक रेलवे स्टेशन के पास तहसील भवन नहीं बना था तब तक किले मे राजस्व कार्य चल रहा था जिसे आज मुहल्ला पुरानी तहसील के नाम से जाना जाता है। किले मे कोतवाली थाना चल रहा है किले के अधिकांश सम्पत्ति पर गृह विभाग का कब्जा है जबकि सरकारी अभिलेखों मे यह किला राजस्व विभाग के नाम है । सन 1990 मे किले के दीवान-ए-आम को ध्वस्त कर थाना कार्यालय बना लिया गया।यही नही किले के रिहायशी कमरों को ध्वस्त कर पुलिसकर्मियो के लिए आवास बना दिये गये। कोतवाली बनने के बाद किले के आधे हिस्से पर नये भवनों का निर्माण करा दिया गया जिसमें अब पुलिस वालो का आवास और कार्यालय है।सरकारी उपेक्षा एवं जनप्रतिनिधियो की उदासीनता तथा पुरातत्व व वक्फ विभाग की खामोशी के कारण किले का अस्तित्व मिटता जा रहा है।जीर्ण-शीर्ण और जर्जर हो चुकी इस ऐतिहासिक इमारत पर सरकार तथा समबन्धित ऐजेसियो का ध्यान नहींगया तो आने वाले कुछ दिनो मे इस ऐतिहासिक धरोहर का नामो निशान मिट जायेगा और सिर्फ किस्से कहे जाएँगे कि कभी यहाँ भी कोई धरोहर थी।लोग यह भी भूल जाएंगे कि 1857 कि क्रान्ति के गवाह इस किले में वतन परस्तों के अरमान दफन हैं।
क़िले को घोषित कराएंगे राष्ट्रीय धरोहर-अब्दुल कलाम
ज़िले की मेंहदावल विधान सभा क्षेत्र से तीन बार विधायक रह चुके सपा जिलाध्यक्ष अब्दुल कलाम कहते हैं कि इस ऐतिहासिक धरोहर का वजूद मिटाने की साजिश के तहत पिछली फ़िरक़ापरस्त सरकारों नें किले पर अवैध निर्माण करवाया था।किले की अन्दर की मस्जिद, शहीद बाबा की मज़ार और किले के उत्तर मे स्थित समय माता मन्दिर आज भी नगर वासियों की आस्था का प्रतीक है।राष्ट्रीय विरासतों के संरक्षण में लगी एजेंसियों की उपेक्षा के कारण सन 1857 की क्रान्ति का साक्षी खलीलाबाद का यह ऐतिहासिक किला अपना वजूद खोने की हालत में पहुँच चुका है।इस ऐतिहासिक क़िले को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कराते हुए इसके कायाकल्प का भरसक प्रयास किया जाएगा।




