Bhagavad Gita: भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता के अध्याय 16, श्लोक 7 में मानव स्वभाव के दो पहलुओं दैवी और आसुरी प्रवृत्ति पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कहा है कि आसुरी स्वभाव वाले लोग यह नहीं जानते कि जीवन में क्या करना उचित है और क्या नहीं. उनके भीतर न तो शुद्धता रहती है, न ही सदाचार और न ही सत्य का पालन. ऐसे लोग धर्म के मार्ग से भटककर केवल भौतिक सुखों और स्वार्थ में उलझ जाते हैं.
धर्म सिर्फ अनुष्ठान नहीं, यह एक जीवन पद्धति
श्रीकृष्ण कहते हैं कि धर्म मनुष्य को आत्मिक शांति, संतुलन और समाज के कल्याण की दिशा में ले जाता है. जबकि अधर्म व्यक्ति को अंधकार की ओर धकेल देता है. जहां भ्रम, क्रोध, हिंसा और असत्य का वास होता है.
गीता के उपदेश में श्रीकृष्ण बताते हैं कि धर्म केवल पूजा या अनुष्ठान नहीं है, बल्कि एक जीवन पद्धति है जो समाज में व्यवस्था बनाए रखती है. जब यह मर्यादा टूटती है, तब मनुष्य अपने स्वार्थ, वासनाओं और अहंकार में फंसकर सही-गलत का भेद खो देता है.
आधुनिक युग में श्रीकृष्ण का संदेश और भी प्रासंगिक है. आज कई लोग यह कहते हैं कि हर किसी का सत्य अलग होता है. लेकिन श्रीकृष्ण चेताते हैं कि यह सोच अंततः भ्रम और नैतिक पतन की ओर ले जाती है. यदि हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार सत्य गढ़ने लगे, तो समाज में नियम, न्याय और मर्यादा का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा. इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्य सापेक्ष नहीं, बल्कि परम है. और यही सत्य धर्म का मूल है.
नहीं करते धर्म अधर्म का विचार
भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग अपने कर्मों के परिणाम पर विचार नहीं करते. शुचिता और नैतिकता का पालन नहीं करते और सत्य को अपने हित में मोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसे लोग अपने स्वार्थ और अहंकार में अंधे होकर वह सब कर बैठते हैं जो समाज के पतन का कारण बनता है. उनके लिए धर्म का कोई महत्व नहीं रहता.
धर्म और सदाचार ही स्थायी
श्रीकृष्ण मनुष्य को चेताते हैं कि जीवन में धर्म, सत्य और सदाचार ही स्थायी मूल्य हैं. जो इनसे विमुख होता है, वह धीरे-धीरे विनाश की ओर बढ़ता है. आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग उचित और अनुचित का भेद नहीं कर पाते. उनमें न शुद्धता होती है, न सत्य और न ही आचरण की मर्यादा.
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