Sawan Shiv Puja, Swami Kailashananda Giri: आज सावन की शिवरात्रि है. जो श्रावण माह का सबसे पुण्यकारी दिन माना जाता है. भोलेनाथ को इस दिन कांवड़ का जल अर्पित करने की परंपरा है. सावन में भोले के भक्त शिव जी को प्रसन्न करने के लिए तमाम जतन करते हैं आइए भोलेनाथ के परम भक्त और निरंजनी अखाड़ा के महामंडलेश स्वामी कैलाशानंद गिरी से जानें सावन में शिव जी कैसे जल्द प्रसन्न होंगे.
स्वामी कैलाशानंद गिरी से जानें शिव को प्रसन्न करने के उपाय
- स्वामी कैलाशानंद गिरी के अनुसार भगवान शिव को जल सबसे अधिक प्रिय है. जल की पतली धारा बनाकर शिवलिंग का अभिषेक करने वालों से महादेव जल्द प्रसन्न होते हैं.
- जल के बाद शिव जी को वेद मंत्र बहुत प्रिय है. जलाभिषेक करने के बाद अगर कोई बटुक ब्राह्मण भोलेनाथ के वेद मंत्र सुनाए तो वह बहुत प्रसन्न होते हैं. वेद पाठी भवे शिवा, वेद पाठी भवे रुद्र, अर्थात भगवान शिव ने कहा कि वेद पाठी ब्राह्मण भगवान महादेव के समान है. स्वामी जी कहते हैं कि अगर किसी का भाग्य रूठ गया है और वो सच्चे मन से शिव साधना में जुट जाता है तो महादेव स्वंय उसका भाग्य पलट देते हैं.
- महादेव को चंपक, मंदार, गुलाब, बेला, धतूरे का फूल शिव जी को सबसे प्रिय है. स्वामी कैलाशानंद गिरी के अनुसार जो सावन में भोलेनाथ की पूजा इन फूलों से करता है शिव जी उसके कष्ट हरते हैं.
- स्वामी कैलाशानंद गिरी के अनुसार अगर आपके पास कोई सामग्री नहीं है तो शिव जी के समक्ष शिव मानस स्तोत्र का पाठ करें –
रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं
नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम् ।
जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा
दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥१।।
सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥ २ ॥
छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं
वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत् समस्तं मया,
सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ ३ ॥
आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।
सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ ४ ॥
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा
श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत् क्षमस्व
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ॥५॥
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